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प्रत्यंचा इस हफ्ते परंपरा

कविताएँ
शमशेर बहादुर सिंह

उषा

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
[अभी गीला पड़ा है]
बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गई हो
स्लेय पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और...
जादू टटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।

सुबह

जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था, वो पत्थार
सजग-सा होकर पसरने लगा
आप से आप।

धूप

धूप थपेड़े मारती है थप्-थप्
केले के हातों से पातों से
केले के थंबों पर
खसर-खसर एक चिकनाहट
हवा में मक्‍खन-सा घोलती है
नींद-भरी आलस की भोर का
कुंज गदराया है
यौवन के सपनों से
अभी अनजान मानो
नावें उछलती हैं लहरों में बादलों के
हलकी हलकी मगन मगन
कि सीटियाँ-सी व्योेम बजाता है चारों ओर
बेमानी तानें-सी आप ही आप गुनगुनाता है
चुंबन की मीठी पुचकारियाँ
खिला रहीं कलियों को फूलों को हँसा रहीं
घासों को गुदगुदियों न्हिला रहीं
नाच हैं खिल् खिल् खिल्
कुसुमों-से चरनों का लोच लिये
थिरक रही हैं
भीनी भीनी
सुगंधियाँ
क्यों न उसाँसें भरे
धरती का हिया
धूप की चुस्कियाँ
पिये जाय, आँख मीच, सोनीली माटी
कन्-कन् जिये जाय
थप्-थप् केले के पातों पर हातों से
हाथ् दिये जाय
थप थप्...

शाम और रात : तीन स्टैंजा

तकिये पे
सुर्ख गुलाब मैंने
समझे...
दो
सेब मैंने समझे दो...
क्यों ?
वो तो... वो तो
दो दिल थे।

X X

संग
- शाम का रंग लपेटे
तुम थे

X X

- तकिये पे सिर्फ मेरा सिर था :
आँखों में
रात जल रही थी।

रात्रि

1

मैं मींच कर आँखें
कि जैसे क्षितिज
तुमको खोजता हूँ।

2

ओ हमारे साँस के सूर्य!
साँस की गंगा
अनवरत बह रही है।
तुम कहाँ डूबे हुए हो?

पंद्रह कहानियाँ
देवेंद्र

समकालीन कथाकारों में देवेंद्र एक विशिष्ट नाम हैं। कई बार बेहद तल्ख अंदाज में लिखी गई उनकी कहानियाँ जैसे भारतीय समाज की फिर फिर से खोज करती दिखाई देती हैं। वह अपने कथाकार को अपने चरित्रों की दुनिया में पूरी तरह से डुबो देते हैं। शायद इसी वजह से उनकी कहानियाँ अपने चरित्रों से किसी तरह की मुरौव्वत करती नहीं दिखाई देतीं तो दूसरी तरफ किसी आभासी किस्म के आशावाद से भी अपने आप को सफलता पूर्वक दूर रख पाती हैं। यहाँ प्रस्तुत उनकी कहानियाँ क्षमा करो हे वत्स!, अवांतर-कथा, एक खंडित प्रेमकथा, एक खाली दिन, क्रांति की तलाश, टुकड़े-टुकड़े शालिग्राम, तेरी गड्डी दी आस, देवांगना, धर्मराज, बीच के दिन, महाकाव्य का आखिरी नायक, रंगमंच पर थोड़ा रुक कर, शहर कोतवाल की कविता, समय बे-समय और स्वांतः सुखाय उनके कथा-संसार का एक प्रतिनिधि रूप पेश करती हैं।

आलोचना
शंभु गुप्त
भारतीय राष्ट्रीय प्रतिरोध की मौजूदा संभावित बानगी
(उदय प्रकाश की कुछ लंबी कहानियों पर केंद्रित)

विमर्श
राजकुमार
हिंदी नवजागरण की परिकल्पना पर पुनर्विचार की जरूरत

संस्मरण
सुधा अरोड़ा
दीवारों में चिनी चीखों का महाप्रयाण

निबंध
पांडेय बेचन शर्मा उग्र
धरती और धान

कविताएँ
ताद्यूश रोजेविच

सत्य के प्रयोग अथवा
आत्मकथा

(पाँचवाँ भाग)
मोहनदास करमचंद गांधी


पिछले हफ्ते

कविताएँ
त्रिलोचन

कहानियाँ
हुस्न तबस्सुम निहाँ
आनर किलिंग
और दिन पलाश हुए
बताओ ना अंकल
थमते-थमते साँझ हुई
नीला मेम साहब
विखंडित होने की ऋतु

आलोचना
रोहिणी अग्रवाल
समकालीन हिंदी उपन्यास और दिकू समाज का आदिवासी चिंतन

व्यंग्य
शरद जोशी
आलोचना

निबंध
अज्ञेय
वासुदेव प्याला

विमर्श
हावर्ड फास्ट
यह एक गाथा है... पर आप सबके लिए नहीं!
(मजदूर दिवस पर विशेष)

सत्य के प्रयोग अथवा
आत्मकथा

(चौथा भाग)
मोहनदास करमचंद गांधी

कवि व्यभिचारी चोर
सुधीश पचौरी

एक दिन एक कवि ने शिकायत की कि आप हिंदी के लेखकों को ही क्यों ठोकते हैं? अन्य भाषाओं वाले पढ़ते होंगे, तो क्या सोचते होंगे?’

‘न ठोकता, तो तुम क्या यह सवाल करते? इस पर भी न हँसूँ, तो क्या करूँ? मैं तो हर बार अपने ऊपर ही हँसता हूँ।’

‘जो हास्यास्पद हैं, उन पर हँसें। बाकी पर क्यों? इतने बड़े और महान लेखक हैं और आप उनकी महानता में सुई चुभाते रहते हैं!’

‘हमारे उत्तर-आधुनिक शब्दकोश में ‘महान’ शब्द ‘संदिग्ध’ है। महानता अनेक तुच्छताओं से गढ़ी जाती है। और साथी हिंदी में ऐसा कौन है, जो हास्यास्पद नहीं है? मैं खुद भी उपहासास्पद हूँ। लोग मुझे पचौरी की जगह ‘कचौरी’ बोलते हैं। कई तो कहते हैं : उसे कचौरी की तरह खा जाऊँगा...। मैं डरा रहता हूँ कि कहीं सचमुच खा गया, तो मेरे बीवी-बच्चों का क्या होगा?’

वह हँसकर बोले : ‘पचौरी की तुक तो कचौरी ही है। इसमें क्या गलत है?’

‘काश! मेरा नाम कचौरी होता। नाम लेते ही मुँह में पानी आता। आप भी नाश्ता कर सकते।’

‘जब आप ही एब्सर्ड बनाएँगे, तो हिंदी वालों की इज्जत कौन करेगा? आप गंभीरता के दुश्मन हैं। कई सीनियर कवि नाराज हैं।’

गंभीरता की बात न करें श्रीमान! सारे गंभीरों को जानता हूँ। सब ‘नॉन सीरियस’ हैं। कविवर केशवदास ने कवियों को किस कैटेगरी में रखा है? ‘व्यभिचारी और चोर’ की कोटि में -चरन धरत चिंता करत, भावत नींद न भोर। सुबरन को खोजत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।

‘ये ‘सुबरन’ क्या है?’

‘कभी हिंदी की क्लास अंटेंड की है? साहित्यशास्त्र पढ़ा? काव्य परंपरा जानी? ‘सुबरन’ के तीन अर्थ हैं : कवि ‘सुंदर वर्ण यानी सही शब्द’ खोजता-फिरता है। व्यभिचारी ‘सुवर्णा नारी’ को खोजता फिरता है। चोर ‘स्वर्ण’ खोजता फिरता है। समझे?’

मैंने पूछा : ‘कवि तो ‘क्रांति का हिरावल दस्ता’ होता है। उसे ‘व्यभिचारी और चोर’ के साथ रखना ‘क्रांति द्रोह’ के बराबर है। आखिर यह केशव कौन है, जो साहित्य में ऐसी बदतमीजी करता है?’

वह बोले : ‘केशव हिंदी के काव्य चैंपियन माने जाते हैं - कविता का ओलंपिक होता, तो इस दरिद्र भारत को अकेले कई स्वर्ण दिला देते - एक ‘सुबरन’ से तीनों के ‘कॉमन लक्षण’ बता दिए!’

‘लेकिन कवि व्यभिचारी तो कतई नहीं कहे जा सकते।’

‘केशव के पैमाने से व्यभिचारी भी लगते हैं? आप एक नाम लीजिए - ऊपरी चाकचिक्य में अंदर की बातें छिपा जाते हैं। हमारा मुँह न खुलवाओ!’

‘डरते हैं? बताइए न!’

हमने कहा : हाल ही की बात है। स्त्रीवाद विषयक सेमिनार में जब एक प्रगतिशील वक्ता ने कहा कि ऐसी प्रगतिशीलता और स्त्रीवाद किस काम का, जो एक बीवी गाँव में रिजर्व छोड़ दे और दूसरी को दिल्ली में आकर बीवी बना ले? ऐसा कहते ही सेमिनार में ठहाका लगा, जिसके नतीजे में एक साहित्यकार बहिर्गमन कर गया। क्या आप अब भी कहेंगे कि महाकवि केशव ने कवि को ‘व्यभिचारी और चोर’ की संगत में क्यों रखा है?’

इतना सुनते ही कवि जी केशव को और हमें गाली देते हुए निकल गए। कहा : देख लूँगा। केशव की कविता सुनाई, तो धमकी मिली। अकबर इलाहाबादी की सुनाएँगे, तो क्या तोप मुकाबिल होगी?

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