कवि व्यभिचारी चोर
सुधीश पचौरी
एक दिन एक कवि ने शिकायत की कि आप हिंदी के लेखकों को ही क्यों ठोकते हैं? अन्य भाषाओं वाले पढ़ते होंगे, तो क्या सोचते होंगे?’
‘न ठोकता, तो तुम क्या यह सवाल करते? इस पर भी न हँसूँ, तो क्या करूँ? मैं तो हर बार अपने ऊपर ही हँसता हूँ।’
‘जो हास्यास्पद हैं, उन पर हँसें। बाकी पर क्यों? इतने बड़े और महान लेखक हैं और आप उनकी महानता में सुई चुभाते रहते हैं!’
‘हमारे उत्तर-आधुनिक शब्दकोश में ‘महान’ शब्द ‘संदिग्ध’ है। महानता अनेक तुच्छताओं से गढ़ी जाती है। और साथी हिंदी में ऐसा कौन है, जो हास्यास्पद नहीं है? मैं खुद भी उपहासास्पद हूँ। लोग मुझे पचौरी की जगह ‘कचौरी’ बोलते हैं। कई तो कहते हैं : उसे कचौरी की तरह खा जाऊँगा...। मैं डरा रहता हूँ कि कहीं सचमुच खा गया, तो मेरे बीवी-बच्चों का क्या होगा?’
वह हँसकर बोले : ‘पचौरी की तुक तो कचौरी ही है। इसमें क्या गलत है?’
‘काश! मेरा नाम कचौरी होता। नाम लेते ही मुँह में पानी आता। आप भी नाश्ता कर सकते।’
‘जब आप ही एब्सर्ड बनाएँगे, तो हिंदी वालों की इज्जत कौन करेगा? आप गंभीरता के दुश्मन हैं। कई सीनियर कवि नाराज हैं।’
गंभीरता की बात न करें श्रीमान! सारे गंभीरों को जानता हूँ। सब ‘नॉन सीरियस’ हैं। कविवर केशवदास ने कवियों को किस कैटेगरी में रखा है? ‘व्यभिचारी और चोर’ की कोटि में -चरन धरत चिंता करत, भावत नींद न भोर।
सुबरन को खोजत फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।
‘ये ‘सुबरन’ क्या है?’
‘कभी हिंदी की क्लास अंटेंड की है? साहित्यशास्त्र पढ़ा? काव्य परंपरा जानी? ‘सुबरन’ के तीन अर्थ हैं : कवि ‘सुंदर वर्ण यानी सही शब्द’ खोजता-फिरता है।
व्यभिचारी ‘सुवर्णा नारी’ को खोजता फिरता है। चोर ‘स्वर्ण’ खोजता फिरता है। समझे?’
मैंने पूछा : ‘कवि तो ‘क्रांति का हिरावल दस्ता’ होता है। उसे ‘व्यभिचारी और चोर’ के साथ रखना ‘क्रांति द्रोह’ के बराबर है।
आखिर यह केशव कौन है, जो साहित्य में ऐसी बदतमीजी करता है?’
वह बोले : ‘केशव हिंदी के काव्य चैंपियन माने जाते हैं - कविता का ओलंपिक होता, तो इस दरिद्र भारत को अकेले कई स्वर्ण दिला देते - एक ‘सुबरन’ से तीनों के ‘कॉमन लक्षण’ बता दिए!’
‘लेकिन कवि व्यभिचारी तो कतई नहीं कहे जा सकते।’
‘केशव के पैमाने से व्यभिचारी भी लगते हैं? आप एक नाम लीजिए - ऊपरी चाकचिक्य में अंदर की बातें छिपा जाते हैं। हमारा मुँह न खुलवाओ!’
‘डरते हैं? बताइए न!’
हमने कहा : हाल ही की बात है। स्त्रीवाद विषयक सेमिनार में जब एक प्रगतिशील वक्ता ने कहा कि ऐसी प्रगतिशीलता और स्त्रीवाद किस काम का, जो एक बीवी गाँव में रिजर्व छोड़ दे और दूसरी को दिल्ली में आकर बीवी बना ले? ऐसा कहते ही सेमिनार में ठहाका लगा, जिसके नतीजे में एक साहित्यकार बहिर्गमन कर गया।
क्या आप अब भी कहेंगे कि महाकवि केशव ने कवि को ‘व्यभिचारी और चोर’ की संगत में क्यों रखा है?’
इतना सुनते ही कवि जी केशव को और हमें गाली देते हुए निकल गए। कहा : देख लूँगा। केशव की कविता सुनाई, तो धमकी मिली। अकबर इलाहाबादी की सुनाएँगे, तो क्या तोप मुकाबिल होगी?
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